आत्महत्या: एक विचार

किसी रोज जब आप अपनी सोई हुई जिंदगी से अचानक उठते हैं तो अक्सर आपकी आँखे बाहरी जिंदगी से तिलमिला उठती है। ऐसा महसूस करना कोई नई बात तो नहीं पर हाँ शायद अगर रोज़नामचे से ऐसा होता हो तो नई बात होगी या फिर यूँ कहूँ की पुरानी बात को कुछ नए ढंग से कहा जाएगा। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि तिलमिलाना महसूस तो होता है बस बयां नहीं हो पाता। 

इस बात को अब तक काफी दौर गुज़र चुके है। अभी तक काफी जिंदगियाँ भी हम चाय की चुस्कियों के साथ गटक चुके हैं। तो हुआ यूँ कि मैं भी ऐसी ही कोई जिंदगी, किसी अलसाई हुई दोपहर को यूनिवर्सिटी के कागजों में समेट ही रही थी कि उसी वक़्त मेरी प्रोफेसर ने कहा कि, 'सम पीपुल डू लिव ऑन द ब्रिंक ऑफ सुसाइड '। कोई जब आपकी पूरी जिंदगी को चंद लफ़्ज़ों में कह देता है तो तिलमिलाना ज़ाहिर सी बात होगी कि नहीं? इसलिए मैं समझती हूँ, मेरा तिलमिलाना अतिशयोक्ति नहीं होना चाहिए और ना ही मेरा ये सवाल पूछा जाना कि, तो फिर क्या किया जाए? परंतु यह जरूर अतिशयोक्ति होगी अगर मैं बता दूँ कि प्रतिउत्तर था, 'नथिंग '। 

कुछ किस्से आपके अवचेतन को इस तरह झकजोर देते है कि फिर वे सिर्फ कागज़ी नहीं रहते। कब जो किसी सहर महज़ कागज़ी किरदार हुआ करते थे, वास्तविकता बन जाते है या दुर्भाग्यवश आप खुद ही बन जाते है बताना बहुत मुश्किल है। वैसे भी सिद्धांत और व्यवहार के बीच का फासला हमेशा से धुंधला ही रहा है।

कई दफ़ा वर्जिनिया नदी के उफान के आने पर डूब जाती है और मैं हर बार उसे नहीं बचा पाती। आखिर जिंदगी में मुझे मूकदर्शक तो कभी नहीं बनना था। ऐसा नहीं है कि मैं कोशिश नहीं करती पर फिर पाती हूँ वही पत्थर मेरे पैरों को जकड़े हुए है जो मैं शायद वर्जिनिया की जेब से चुराना चाहती थी। लेकिन ये भी सच है कि जिंदगी का दस्तूर हमेशा खुशनुमा नहीं होता, कई बार यह आपको बुरे सपनों के साथ भी सुलाती है और जो लोग मुर्दो में खुद को तलाशते है ऐसे लोगों से मुर्दो का खफ़ा होना लाज़िमी भी है। 

तो फिर सांस लेने और अटकने के बीच के अंतराल को मापने के लिए इतना शोर-शराबा क्यों? क्यों बंद कमरों में कैद जिंदगी पसीने से तरबतर ठंडी सिसकिया भरती है? क्या फर्क है अगर दहलीज सिमटी हो और दीवारों के वालपेपर नाखूनों से उखड़े हो? 

'नथिंग '। जी हाँ, जिस तरह इस शब्द की गूँज मेरे दिमाग को विकलांग कर चुकी है और कुछ लिखना मेरे बूते का तो रहा नहीं। शायद मुक्तिबोध का 'शून्य' सटीक रहेगा या फिर कीट्स का 'नेगेटिव कैपिबिलिटी ' का सिद्धांत मेरे हाथों के कंपन से काले पीले अक्षरों के अलावा कुछ तो पढ़ने योग्य लिखे। 


'नेगेटिव कैपेबिलिटी ' का अर्थ 'एसकैपिसम ' कतई नहीं है और अगर है भी तो जो लोग इसे एक मानसिक विकार का तमगा पहना देते है माफ कीजिएगा ऐसे लोगो को मैंने अक्सर हर 'सैटरडे नाइट ' नशे में धुत देखा है। जब मैं इस संदर्भ में सोचती हूँ तो मेरी आँखों के सामने कई चेहरे मोंटाज की तरह आते जाते दिखते है। सुशांत भी उनमें से एक है और मैं भी। ऐसे लोग जिंदगी को कस के पकड़ते है क्योंकि जिंदगी उनके साथ इतना रहती है जितना असहनीय है और हर सुबह ये उसी जिंदगी की तलाश में रहते है जो उन्हें मिलती तो है पर सिर्फ हिस्सों में मिलती है। ऐसी जिंदगी इन्हें चाहिए नहीं। ऐसा महसूस होना एक अजीब सी संवेदना है जिससे छुटकारा पाना असंभव है। या तो जिंदगी रहेगी या संवेदना। 

इसलिए कई आँखे इतनी खाली होती है कि उन्हें नशे के बगैर जीना नहीं आता। कुछ जुगनुओं की तलाश में अंधेरों में जागती है, कुछ खो जाती है, कुछ सिर्फ भटकी है, कुछ चहचहाते हुए बागानों में भी गुमशुद्गी दर्ज करती है और कुछ बंद हो जाती है। 

बिल्कुल नहीं आँखों का बंद हो जाना, अंतिम में लिखा जाना, उसके कमतर होने का प्रमाण नहीं है। बल्कि यही आँखे जिंदादिली को आहुति है, जिंदा रखती है, जिजीविषा है। 


आभार: 

1. खुदकुशी, कीर्ति
4. शून्य, गजानन माधव मुक्तिबोध

















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