"तुम बगावत कर सकती हो"






पीले रंग की साड़ी में लिपटी अकेली औरत
बहुत खूबसूरत लगती है 
वह उस पीले गुलाब की तरह दिखती है 
जो बेफिक्र, बेहया लहराता है अंतहीन धुनों के साथ 
जो झीलों के पार से आई हवा के जरिए
उस तक पहुँचती है 

उसे आप बदगुमां या बदमिजाज भी कह सकते है
किसी रोज़ आप उसे चिलचिलाती धूप में
कॉफी शॉप में भी देख सकते है 
अकेले किसी कोने में, 
चटक लाल रंग की लिपस्टिक और 
दो घूँट किताबों के साथ

उसने जाना है ताबीजों के चुम्बन
क्योंकि वह उसे लोहे की याद दिलाते है
लोहा जो पिघलता नहीं है, 
लोहा जिसके सहारे आयते पढ़ी नहीं गई है

वह किसी ज़माने में दौड़ कर लिपट जाया करती थी
क्योंकि किसी ने बेपरवाह ढंग से कहा था कि
वह बगावत कर सकती है

वैसे तो बगावत और इज़ाज़त का कोई मेल नहीं 
लेकिन उसे पसंद हुआ करता था
डूब जाना
जैसे भँवर में फँसा कोई फ़कीर
अल्लाह को टटोलता है, 
उसमें डूब जाना चाहता है, 
लीन हो जाना चाहता है

इसलिए अब हर इतवार की सुबह
मैं उसे अपनी खिडक़ी से देखती हूँ
अक्सर ख़ामोशी तलाश करते हुए
वह अकेली है, खामोश नज़र आती है
लेकिन ऐसा लगता है मानो अब उसकी खामोशी
सुकूँ टटोलती है, वजूद नहीं










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