मैंने आज एक गुड़िया देखी......
मैंने आज एक गुड़िया देखी, नाजुक थी, बिल्कुल एक पहेली सी। बिलखकर आँचल में छुप जाने को बेकरार, मानो पूरा आंगन ही चहचहाता हो उसके नन्हे पैरों की आहट से। ना उसे किसी दहलीज का गुमान, ना दुनियादारी की कोई भनक। इतनी बेबाक की मानो शर्मो-हया खुद की कुम्हला गयी हो खुद से।
मालूम नहीं है अभी उसे बेजान होठों के चुम्बन, मालूम नहीं रात का ना जाना, दिन का खत्म हो जाना। नहीं भेद कर पाती है सच और झूठ के छलावे, शब्दों के वे अर्थ जो दिलों को तब्दील कर दिया करते हैं लेकिन फिर भी अर्थहीन ही जान पड़ते हैं।
और मैं बेबस हूँ, बिलखकर रोना चाहती हूँ क्योंकि नहीं बता पाती उसे सिहरन की वो लम्बी कतारे जो आलिंगन की महज खुशबू मात्र है, आलिंगन नहीं है।
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