फ़िजा

"तुम्हे सही किया जा सकता है, जैसे मशीन के जंग लगे पुर्जों को वापस जिंदा किया जा सकता है।"

"मुझे लगता है, तुम्हे प्यार की सख्त जरूरत है।"

मैं दूंगी ना मेरे हिस्से का प्यार भी तुम्हें, पैदायशी दयालु प्रवर्ती रही है मेरी। 
जब लंबे लंबे अचकन भी भीग जाया करते थे और छत फिर भी कमबख्त नहीं भूलती थी हमारा बरसो पुराना वैर, तब वो मैं ही थी जिसने हठ कर कहा था, जाओ तुम्हारा चूना अब नहीं भिगोता मेरा आँचल और ना ही तुम्हारी बेतहाशा टप-टप से खीझ आती है मुझे।

पर हठी तो तुम भी कहाँ कम थे, तुम भी नहीं भूले थे मेरी आसमानों से बेरुखी। और कैसे भूला जा भी सकता था मेरे चटक सफेद फ़क़ीर के लिबास में लगा वो काला दाग जिसने तुम्हारी सुराखों की परिभाषा को ही पूरी तरह तब्दील कर दिया था। 

मुझे पता है कि तुम्हे भी पता है क्यूं आँखों का धुंधलापन नहीं सुहाता मुझे, पर तुम्हे तरस आता है मेरी बेबसी ही उस आह पर जिसकी राह तुमसे होकर गुज़री है। लेकिन इसके बावजूद भी तुम सिर्फ उजले सवेरे देखते हो क्योंकि जिस खौफनाक मंजर से तपता हुआ सूरज आहिस्ता-आहिस्ता दिन को निगलता है, तुम्हे ताश के पत्तों की याद दिलाता है। 

और मैं वही हूँ, वही ताश जिसका दाँव तुम्हे खिड़की से यह झाँकने पर मजबूर करता है कि बचा ही क्या था, जो गवाँ बैठा हूँ। 

तो मैं मशीन का पुर्जा होती या तुम्हारी शौकीन तो अभी तक बंट चुकी होती ज़कातों में या एक रहम का सिक्का जरूर पाते तुम मेरी झोली की ओट में। 

बहरहाल, और कुछ ना हो पाए तो सिर्फ इतनी मोहलत दे देना कि जंग जब तक मुझे पूरी तरह अपना ना बना ले तब तक उस खिड़की को मत खोलना जिसका जिक्र मिट्टी का सौंधापन ही बता पायेगा तुम्हे क्योंकि वही एहसास मैं हमेशा से बनना चाहती थी और एक ओर वक्त था जो बीतने को ही नहीं आता था। 

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