इश्तिहार



घर की चहारदीवारी से निकलना औसतन बहुत ही मुश्किल होता है, इसलिए नहीं क्योंकि घर है लेकिन इसलिए क्योंकि, बहरहाल, नहीं है। पर फिर ऐसा भी नहीं है कि कोई जुड़ाव नहीं है। मेरे कमरे में तुम्हारी कुछ तस्वीरें है, किताबों में दबे मुरझाए फूल, एक बिल्ली और दो गज सर्दियों की गुनगनी धूप जिससे लिपटकर रोजनामचे से तुम्हारे लिए शिकायते पढ़ी जाती है। 


और मेरा मिजाज़ आदतन इन सब में ही व्यस्त रहता है। मैं तुम्हारे जैसी बिल्कुल नहीं हूँ, मेरे लिए किसी नए शहर जाना, इन सब बिखरी यादों को पीछे छोड़ना है। मैं तुम्हारी तरह "एडवेंचरस" भी नहीं हूँ । हर नई चीज़ मेरे ज़हन से उसके वजूद का परिचय चाहती है। विडम्बना कह लीजिए पर ऐसे फ़लसफ़े दो कौर लम्हों से कहाँ ही पूरे हो पाते है। 


इसलिए शायद अगर कुछ भी कभी भी काफ़ी नहीं भी हो, फिर भी तुम मेरे लिए कभी काफ़ी नहीं थे। तुम्हे याद करती हूँ तो तुम्हे किसी शब्द में बयां करना चाहती हूँ लेकिन इश्तिहारों के सिवा कुछ दिमाग़ में रहता नहीं है। 


इसलिए आजकल शहर बदल रही हूँ। दिन तो यहाँ भी जल्दी ही ढलते हैं लेकिन यहाँ ढलता सूरज कभी डूबना नहीं चाहता, लौट आना चाहता है। शायद अब मैं वो जिंदगी देख रही हूँ जो मुझमें है ही नहीं। अजीब है, लेकिन मुस्कुराकर ये सब सुनना, महसूस करना कुछ भी हो, तुम्हारी तरह इश्तिहार नहीं है। 





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