क्योंकि अब तुम्हारे पसंदीदा बाल हिजाब हो गए हैं
वजूद ही प्रश्नचिन्ह लगने लगे?
या फिर सोचा हो कभी तुमने कि
राक्षस की किस्म कभी आँखों का तारा हुआ करती थी?
कभी हुई है तुम्हारी घृणा से ऐसी मुलाकात
कि अब हँसा भी यों जाए कि रोया जाए?
लिखा है तुमने कभी ऐसा खत
जिसमे बख्शीश में भी सिर्फ खामोशी चाही हो?
बेनामी रिश्तों ने कभी
नाम देकर छलनी किया है तुम्हारा सीना?
करते भी कैसे
तुम जिए भी ऐसे कि अभी मरे हो
आरजू की भी तो क्या,
जो तन्हा रही हो?
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