भागी हुई लड़कियाँ ( समकालीन अभिव्यक्ति)

मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा !

                          ~ भागी हुई लड़कियां / आलोक धन्वा


भागी हुई लड़कियां लौट कर वापस नहीं आती
भटकती है तमाम उम्र 
सीनों की गर्माहट की खोज में
लेकिन लौटती नहीं है

वे महलों की दीवारें भेंट करती हुई
सरपट कँटीले झोखो से टकराती है
घायल होती है 
झूठे वजूद के सायों को 
मिटाते हुए
भागती है 
अपने आप से
घर की सलाखों से
लेकिन लौटती नहीं है

क्योंकि इतना आसां नहीं था 
बंद पलको में छुपा पूरा संसार देख लेना
इतना आसां नहीं होता
छोड़ जाना

लेकिन तुमने भी तो कभी नहीं चाहा 
ना महसूस किया 
थमा हुआ समय ?

अगर किया होता
तो जान पाते 
कयामत की शक्ल हुबहू
मैं औरत हूँ !

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