क्या खामोशी शब्दों की मोहताज है?

मेरा वजूद और मेरा यकीं दो अलग-अलग बाते है, लेकिन मैं कहीं नहीं हूँ। ये अलग बात है कि तुम्हारे साथ "कहीं भी" लफ्ज का इस्तेमाल भर ही मुझे यह सोचने पर मजबूर करता है कि मेरे हिस्से के तराजू में सच कितना है या कुछ है भी कि नहीं? यूँ सब कुछ छलावा कैसे हो सकता है जब मैं सुबह को महज इसलिए सोचती हूँ क्योंकि तुम्हे उठना है। 

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