तेरे इश्क़ की आबरू........

तेरे इश्क़ की आबरू मेरे जिस्म का यूँ पर्दा बन गई
कि जो शर्म मुझे लोगों ने उधार पर रखने को दी थी

वो शायद अब मुझमें कहीं रही नहीं

पर जब उन्हीं लोगों ने कहा कि 
अरे! अब तो तुम तवायफ़ हो गई हो

तो तुम्हारे होठों की छुअन मेरे गालों की यूँ लाली बन गई
कि जो शर्म अब भूली बिसरी हो चुकी थी

वो भी ना जाने कमबख्त कहाँ से आ गई

और जब हम उस शर्म को पहन बुर्का-नशी हुए
तो मेरा जिस्म उन्हें इतना नंगा नज़र आया

कि अब हम उनके मोहल्ले के ना रहे

पर क्या करें , तुम्हारे सुरूर का ज़ाम यूँ मेरी रूह में उतरता है कि
एक रात हमने भी दुनिया की वो तमाम आबरू अपनी शर्म के साथ जला दी

और आजकल हम उसी राख को ओढ़ कर रोज़ाना 
उनके मोहल्ले से गुज़रा करते है !

~Photo credits: From an exhibition

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